समुद्र मंथन की कथा | Samudra Manthan Story In Hindi - Bhajan Sangrah
GaanaGao1 year ago 274समुद्र मंथन एक अत्यंत महत्वपूर्ण पौराणिक घटना है जिसमें अमृत की प्राप्ति के लिए देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था। आइये विस्तार से जानते हैं समुद्र मंथन की कथा , उसका कारण और परिणाम।
ये कहानी शुरू होती है महर्षि दुर्वासा के शाप से जो उन्होंने देवराज इन्द्र को दिया था। महर्षि दुर्वासा भगवान शिव के ही अंशावतार थे और अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे पर ये बात और थी कि उनके क्रोध में भी कल्याण छिपा रहता था।
समुद्र मंथन का कारण
एक बार दुर्वासा मुनि पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। घूमते घूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में सन्तानक पुष्पों की एक दिव्य माला देखी।
उस दिव्य माला की सुगंध से वह वन सुवासित हो रहा था। तब उन्मत्त वृत्ति वाले दुर्वासा जी ने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर सुंदरी से माँगा।
उनके माँगने पर उस विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके वह माला दे दी। दुर्वासा मुनि ने उस माला को अपने मस्तक पर डाल लिया और पृथ्वी पर विचरने लगे।
इसी समय उन्होंने ऐरावत पर विराजमान देवराज इन्द्र को देवताओं के साथ आते देखा। उन्हें देखकर दुर्वासा मुनि ने मतवाले भौरों से गुंजायमान वह माला अपने सिर पर से उतारकर देवराज इन्द्र के ऊपर फेंक दी।
देवराज ने उसे लेकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी। उस समय वह माला ऐसी सुशोभित हुई जैसे कैलाश पर्वत के शिखर पर श्रीगंगा जी विराजमान हों।
उस मदोन्मत्त हाथी ने भी उसकी गंध से आकर्षित होकर उसे अपनी सूंढ़ से सूंघकर भूमि पर फेंक दिया। यह देखकर दुर्वासा मुनि अत्यंत क्रोधित हुए और देवराज इन्द्र से बोले।
दुर्वासा जी ने कहा – ” अरे ऐश्वर्य के मद से दुषितचित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है, तूने मेरी दी हुई इतनी सुन्दर माला का कुछ भी आदर नहीं किया, इसलिए तेरा त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायेगा।
इन्द्र ! निश्चित ही तू मुझे और मुनियों के समान ही समझता है, इसीलिए तूने हमारा इस प्रकार अपमान किया है, मेरी दी हुई माला को पृथ्वी पर फेंका है इसलिए तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायेगा। ”
यह सुनकर इन्द्र ने तुरंत ऐरावत हाथी से उतरकर निष्पाप दुर्वासा जी को अनुनय विनय करके प्रसन्न किया। तब इन्द्र द्वारा प्रणाम आदि करने से प्रसन्न होकर दुर्वासा जी ने कहा –
” इन्द्र ! मैं कृपालु चित्त नहीं हूँ, मेरे अंतःकरण में क्षमा को स्थान नहीं है। तू बार-बार अनुनय विनय करने का ढोंग क्यों करता है ? मैं क्षमा नहीं कर सकता। “
इस प्रकार कहकर दुर्वासा जी वहाँ से चल दिए और इन्द्र भी ऐरावत पर चढ़कर अमरावती को चले गए।
तभी से इन्द्र सहित तीनों लोक वृक्ष लता आदि के क्षीण हो जाने से श्रीहीन और नष्ट होने लगे। यज्ञों का होना बंद हो गया, तपस्वियों ने तप करना छोड़ दिया और लोगों की दान धर्म में रुचि नहीं रही।
इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन और सामर्थ्यहीन हो जाने पर दैत्यों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी और दोनों पक्षों में घोर युद्ध ठना। अंत में दैत्यों द्वारा देवतालोग पराजित हुए।
दैत्यों द्वारा पराजित होकर देवतागण ब्रह्माजी की शरण में गए। देवताओं से सारा वृत्तांत सुनकर ब्रह्माजी ने कहा – ” हे देवगण, तुमलोग भगवान विष्णु की शरण में जाओ वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे। “
सभी देवताओं से इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी भी उनके साथ विष्णुलोक गए। वहाँ पहुँचकर सबने अनेकों प्रकार से भगवान विष्णु की स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने देवताओं से उनके आने का कारण पुछा।
देवता बोले – ” हे विष्णो ! हम दैत्यों से परास्त होकर आपकी शरण में आए हैं। हे देव ! आप हम पर प्रसन्न होइए और अपने तेज से हमें सशक्त कीजिये। “
भगवान विष्णु बोले – ” हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेज को फिर बढ़ाऊंगा। तुमलोग इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो।
तुम दैत्यों के साथ सम्पूर्ण औषधियां लाकर क्षीरसागर में डालो और मंदराचल पर्वत को मथनी और नागराज वासुकि को नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवों सहित मेरी सहायता से मथकर अमृत निकालो।
तुमलोग साम-नीति का अवलम्बन लेकर दैत्यों से कहो कि ‘ इस काम में सहायता करने से आपलोग भी इसके फल में समान भाग पाएंगे। ‘
समुद्र मंथन से जो अमृत निकलेगा उसका पान करने से तुम सबल और अमर हो जाओगे।
हे देवगण ! तुम्हारे लिए मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुम्हारे द्वेषी दैत्यों को अमृत नहीं मिल पाएगा और उनके हिस्से में केवल समुद्र मंथन का क्लेश ही आएगा। “
ये सुनकर देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए और समुद्र मंथन की व्यवस्था में लग गए। सबसे पहले उन्होंने असुरों को इस कार्य में सहायता करने के लिए राजी किया।
अमृत पाने के लालच में असुर सहायता के लिए तैयार हो गए। देव, दानव और दैत्यों ने अनेक प्रकार की औषधियां लाकर उन्हें क्षीरसागर के जल में डाला।
उन्होंने मंदराचल को मथनी तथा नागराज वासुकि को नेती बनाकर बड़े वेग से अमृत मंथन आरम्भ किया।
भगवान ने जिस ओर वासुकि की पूँछ थी उस ओर देवताओं को तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्यों को नियुक्त किया।
महातेजस्वी वासुकि के मुख से निकलते हुए श्वासाग्नि से झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गए। उसी श्वास वायु से विक्षिप्त हुए मेघों के वासुकि के पूँछ की ओर बरसते रहने से देवताओं की शक्ति बढ़ती गयी।
भगवान विष्णु का कूर्म अवतार
स्वयं भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण करके मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर रखा ताकि मथनी स्थिर रहे और समुद्र में डूब न जाये।
भगवान विष्णु के इसी अवतार को कूर्म अवतार कहा जाता है जो उनके 10 अवतारों में से एक है।
वे ही चक्र गदाधर भगवान अपने एक अन्य रूप से देवताओं में और एक अन्य रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने लगे।
उन्होंने एक अन्य विशाल रूप से जो देवता और दैत्यों को दिखाई नहीं देता था ऊपर से मंदराचल पर्वत को दबा कर रखा था।
श्रीहरि अपने तेज से नागराज वासुकि में बल का संचार करते थे और अपने अन्य तेज से देवताओं का बल बढ़ा रहे थे। इस प्रकार समुद्र मंथन का कार्य सुचारु रूप से चलने लगा।
समुद्र मंथन से निकला विष
समुद्र मंथन से सबसे पहले कालकूट नामक विष निकला जिसे देखकर समस्त देवता, दैत्य तथा मुनिगण चिंतित हो गए क्योंकि कालकूट विष पुरे संसार का नाश कर सकता था तब उन सबने भगवान शिव से रक्षा की विनती की।
भक्तवत्सल भगवान शिव ने संसार की रक्षा के लिए उस कालकूट विष को अपने कंठ में धारण किया। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और इसी कारण भगवान शिव का एक नाम नीलकंठ पड़ा।
कहते हैं कि भगवान शिव द्वारा विष का पान करते समय उसकी कुछ बूँदें छलककर भूमि पर गिर पड़े जिसे सर्प, बिच्छू और अन्य विषैले जीवों ने ग्रहण कर लिया।
समुद्र मंथन के 14 रत्न : लिस्ट
समुद्र मंथन से कुल 14 रत्न ( 14 Ratan ) निकले जिन्हें देवता और दानवों ने आपस में बाँट लिया, इन 14 रत्नों के नाम इस प्रकार हैं-
1. कालकूट विष – समुद्र मंथन में सबसे पहले कालकूट विष निकला जिसकी ज्वाला अत्यंत तीव्र थी तब सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने हलाहल को अपने कंठ में धारण किया।
2. कामधेनु गाय – गौ माता को कामधेनु भी कहा जाता है। कामधेनु यज्ञ में सहायक थी इसलिए इसे ऋषियों को दे दिया गया।
3. उच्चैःश्रवा – समुद्र मंथन से उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा निकला जो मन की गति से चलता था। इसे दैत्यों के राजा बलि ने रख लिया।
4. ऐरावत हाथी – ऐरावत हाथी इन्द्र का वाहन है यह सफ़ेद रंग का और अत्यंत सुन्दर था।
5. कल्प वृक्ष – यह स्वर्ग का वृक्ष है जो सभी इक्षाओं को पूरा करने वाला था।
6. माता लक्ष्मी – समस्त प्रकार के सुख, समृद्धि और सौभाग्य देने वाली माता लक्ष्मी का प्रादुर्भाव भी समुद्र मंथन से ही हुआ था उन्होंने भगवान विष्णु का वरण किया।
7. चन्द्रमा – चन्द्रमा को जल का कारक ग्रह माना गया है। चन्द्रमा की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन से हुई जिसे भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण किया।
8. शंख – शंख को विजय का प्रतीक माना जाता है। हिन्दू धर्म में शंख का बहुत महत्व है।
9. कौस्तुभ मणि – समुद्र मंथन से निकले इस दुर्लभ मणि को भगवान विष्णु ने धारण किया।
10. अप्सरा – समुद्र मंथन से अप्सराएं निकलीं जो अत्यंत सुन्दर और मनभावन थी। रम्भा देवलोक की प्रमुख अप्सराओं में से एक थी।
11. वारुणी – ये एक प्रकार की मदिरा थी जिसे दानवों ने रख लिया।
12. पारिजात – पारिजात या हरश्रृंगार को स्वर्ग का फूल भी कहते हैं, यह भी समुद्र मंथन से निकला था। भगवान शिव को इसके फूल अत्यंत प्रिय हैं।
13. भगवान धन्वन्तरि – धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक थे और इन्हें आयुर्वेद का जनक भी माना जाता है।
14. अमृत – धन्वन्तरि देव अपने हाथों में अमृत लिए समुद्र से प्रकट हुए। अमरत्व प्रदान करने के साथ-साथ अमृत में सभी प्रकार के रोग और शोक का नाश करने की क्षमता भी थी।
भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार
अमृत के लोभ में ही असुर समुद्र मंथन के लिए तैयार हुए थे तो जब समुद्र से अमृत लिए धन्वन्तरि निकले तब असुरों के धैर्य की सीमा टूट गई और वे धन्वन्तरि से अमृत छीनने की कोशिश करने लगे।
धन्वन्तरि से अमृत छीनने के बाद अपने तमो गुण प्रधान स्वभाव के कारण असुर आपस में ही अमृत पहले पीने के लिए लड़ने लगे पर कोई भी अमृत पी नहीं सका।
ये देखकर देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता का अनुरोध किया। तब विष्णु भगवान बोले कि असुरों का अमृत पान करके अमरत्व प्राप्त करना सृष्टि के लिए भी हितकारी नहीं है।
ये कहकर भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया जो सब प्रकार के स्त्रियोचित गुणों से परिपूर्ण थी। भगवान विष्णु के इस अवतार को मोहिनी अवतार ( Mohini avatar ) भी कहते हैं।
मोहिनी रूप धारण करके भगवान असुरों के बिच चले गए। असुरों ने ऐसा रूप लावण्य पहले नहीं देखा था तो सबके सब भगवान की माया से मोहित हो गए।
तब मोहिनी ने कहा कि ‘ आप सबलोग व्यर्थ ही झगड़ रहे हैं, मैं इस अमृत को देवताओं और दैत्यों में बराबर बाँट देती हूँ। ‘
इस प्रकार उन्होंने दो पंक्ति बनवायी पहली दैत्यों की और दूसरी देवताओं की और छल से अमृत सिर्फ देवताओं को ही पिलाने लगी।
मोहिनी के आकर्षण में मोहित दैत्य इसे समझ नहीं पाए पर राहु नामक दैत्य इस चाल को समझ गया और वेश बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया और अमृत पान कर लिया।
वह अमृत उसके कंठ तक ही पहुँचा था कि देवताओं की कल्याण भावना से प्रेरित होकर चन्द्रमा और सूर्य ने उसके भेद को प्रकट कर दिया।
जैसे ही भगवान विष्णु को इस बात का पता चला उन्होंने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धर से अलग कर दिया पर अमृत पान के कारण राहु के शरीर के दोनों ही भाग जीवित रह गए।
सिर वाला भाग राहु और धर वाला भाग केतु कहलाया। ये दोनों छाया ग्रह हैं। ज्योतिष में इनका बहुत महत्व है और ये दोनों छाया ग्रह अन्य नव ग्रहों पर विशेष प्रभाव डालते हैं।
तभी से राहु के उस मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ अटूट वैर निश्चित कर दिया, जो आज भी उन्हें पीड़ा पहुँचाता है।
अमृत का पान करके देवताओं की शक्ति फिर से बढ़ गयी और उन्होंने दैत्यों पर आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया और स्वर्ग का राज्य प्राप्त कर लिया।
समुद्र मंथन की कथा ( Samudra Manthan Katha ) के साथ सभी प्रकार के सौभाग्य देनेवाली माता लक्ष्मी का जन्म भी जुड़ा हुआ है। जो मनुष्य लक्ष्मी जी के जन्म की इस कथा को सुनता या पढता है उस पर माता लक्ष्मी की कृपा रहती है।
संबंधित प्रश्न
समुद्र मंथन क्यों किया गया था ?
दुर्वासा मुनि के शाप से श्रीहीन और शक्तिहीन हुए देवताओं ने भगवान विष्णु के परामर्श पर अमृत की प्राप्ति के लिये दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन का आयोजन किया था।
समुद्र मंथन के समय असुरों का राजा कौन था ?
समुद्र मंथन के समय असुरों के राजा दैत्यराज बलि थे।
उस सागर का क्या नाम था जिसका देवताओं और असुरों ने मंथन किया था ?
देवताओं और असुरों ने जिस सागर का मंथन किया था उसका नाम क्षीरसागर था।
Singer - Bhajan Sangrah
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